लोग अक्सर पैसो की कमी की वजह से अपने सपने को पीछे छोड़ देते है। लेकिन 250 रुपये की छोटी से रकम लेकर घर छोर कर बड़े शहर की ओर कदम बढ़ाना वाकई जुनून और साहस भारी बात है।
बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज गांव में जन्मे अमित कुमार दास ने कुछ ऐसा ही साहसिक कदम उठा कर युवाओ के लिए एक अद्भुत उदाहरण पेश किया है।
अमित का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था जहाँ की घर के हर लड़के बड़े होकर खेती का ही काम करते थे। लेकिन अमित कुछ अलग करना चाहते थे। उनका सपना था एक इंजिनीयर बनने का। लेकिन परिवार की माली इस्थिति ठीक न होने के कारण ऐसा संभव नही था।
संघर्षो भर रहा बचपन का दिन
परिवार की आर्थिक हालात खराब होने के कारण जैसे तैसे सरकारी स्कूल की पढ़ाई पूरी की। 12वी की पढ़ाई उन्होंने एऐन कॉलेज से साइंस स्ट्रीम से पास की। लेकिन इतनी पढ़ाई करते करते उनके सामने परिवार के आर्थिक हालत को ठीक करने की चुनौती आ गयी। उन्होंने मछली पालन और ट्रेक्टर खरीदने जैसे व्यवसाय का विचार किया। लेकिन उनका यह विचार विचारो तक ही सीमित रह गया क्योंकि उसमें कम से कम 25000 रुपये की लागत होती जोकि उनके लिए अशाम्भव था। जो परिस्थितियॉ सामने आ रही थी वो उनके समझ में नही आ रही थी। ऐसे में उनके सपने आर्थिक तंगी के बोझ तले दबी जा रही थी। जब उन्हें कोई रास्ता नही सूझा टैब उन्होंने 250 रूपय की चोटी रकम लेके दिल्ली का रुख किया। दिल्ली जाकर उन्हें महसूस हुआ कि वे इंजिनीरिंग का खर्च नही उठा पाएंगे। इस इस्थिति से निपटने के लिए उन्होंने कि पार्ट टाइम ट्यूशन पढ़ने का निश्चय किया और दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए की पढ़ाई शुरु की।

अंग्रेजी बनी रास्ते का सबसे बड़ा काटा
बीए की पढ़ाई के दौरान ही उन्हें ये महसूस हुआ कि उन्हें कंप्यूटर की तालीम लेनी चाहिए। इस लिए वे प्राइवेट कंप्यूटर ट्रेनिंग सेन्टर पहुचे। जब ट्रेनिंग सेन्टर पर उनसे अंग्रेजी में सवाल किया गया तब वे कुछ बोल नही पाए। अंग्रेजी का बहुत कम ज्ञान होने के कारण उन्हें वहां प्रवेश नही मिला। उदास होकर अमित लौट रहे थे तब बस में उनकी उदासी को देख कर एक यात्री ने कारण जानना चाहा । कारण जाने के बाद यात्री ने उन्हें इंगलिश स्पीकिंग कोर्स करने का सुझाव दिया। ये सुझाव उन्हें अच्छा लगा और उन्होंने तीन महीने के इंग्लिश स्पोकन कोर्स में दाखिला ले लिया। इस कोर्स को करने के बाद उन्हें एक नई आशा मिली और वे कंप्यूटर ट्रेनिंग सेन्टर में दाखिला लेने में सफल ही गए। छः महीने के इस कोर्स में अमित ने अव्व्ल दर्जा प्राप्त किया और उन्हें एक नई राह मिल गयी। इनकी उतीर्णता को देखते हुए इंस्टीट्यूट ने उन्हें तीन वर्ष के प्रोग्राम का आफर दिया। प्रोग्राम के पूरा होने के बाद उन्हें फैकल्टी के रूप में नियुक्त किया गया जहाँ उन्हें पहली सैलरी 500 रुपये मिल
बचत के पैसों से ISOFT कंपनी शुरू किया।
इंस्टिट्यूट में काम करने के दौरान अमित को एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में इंग्लैंड जाने का मौका मिला, लेकिन अमित ने मना कर दिया। उनके मन मे अपना कारोबार शुरू करने की इच्छा थी। 21 साल की उम्र में कारोबार की इच्छा रखने वाले अमित ने जॉब छोड़ने का फैसला किया और कुछ बचत के रुपयों से एक छोटी सी जगह किराये पे लेके ISOFT कंपनी 2001 में शुरू किया।लेकिन मुस्किलो का दौर अव खत्म नही हुआ । कुछ महीने तक उन्हें कोई भी प्रोजेक्ट नही मिला। समय बिताने के लिए उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में रात 8 बजे तक पढ़ना और फिर रात भर बैठ के सॉफ्टवेयर बनाना शुरू किया।
कड़ी मेहनत में फल शवरूप उन्हें पहला प्रोजेक्ट 5000 रुपये का मिला। शुरुआती दौर के शंघर्स के बारे में अमित बताते है कि उनके पास लैपटॉप खरीदने के पैसे नही थे इसलिए वे अपने क्लाइंट्स को सॉफ्टवेयर दिखाने के लिए पब्लिक बसों में सीपीयू साथ ले जाते थे। इसी बीच उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट का प्रोफेशनल एग्जाम पास किया। उन्होंने इआरसिस नाम का सॉफ्टवेयर भी डेवेलप किया और उसे पेटेन्ट भी करवाया।

ISOFT को सिडनी लेजाने का फैसला किया
2006 में अमित को ऑस्ट्रेलिया में सॉफ्टवेयर फेयर में जाने का मौका मिला जहा उन्हें अंतरराष्ट्रीय एक्सपोज़र का मौका मिला। उन्होंने अपने कंपनी को सिडनी ले जाने का फैसला किया।
ISOFT सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी ने सिडनी में कारोबार फैलाया । आज 200 से ज्यादा कर्मचारियों और दुनिया मे 40 क्लाइंट्स के साथ ये कंपनि कदम कदम पर प्रगतिशील है। 150 करोड़ के सालाना टर्नओवर के साथ कंपनी के आफिस सिडनी के साथ साथ दुबई, दिल्ली और पटना में भी है।
अब नेकी के काम में लग चुके है
आज अमित ने अपनी पहचान समाज के प्रति सजग और सक्रिय रहने वाले लोगो मे करवाई है। जिस कमी की वजह से उन्हें अपना राज्य छोड़ना पड़ा, आज अमित उन कमियों को दूर करने में लगे है। करोड़ों रुपयों के निवेश के साथ बिहार राज्य में शिक्षा, सुपर स्पेसलिटी हॉस्पिटल और बुनियादी सेवाओ के विकास में योगदान कर चुके है। वर्ष 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने फारबिसगंज में एक कॉलेज खोलने का निश्चय किया और साल 2010 में कॉलेज का निर्माण करवा दिया। उनका यह मनना है कि उनके इस प्रयासो पे उनके पिता को गर्व होगा।
Hme Garv hai ki Hum Bihar se hai😊😊😊
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